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Thursday, February 10, 2011

दिल्ली का एक और दर्द

अगर हम दिल्ली की बात करते हैं तो सबसे पहले क्या तस्वीर हमारी हमारी आंखों में उभर कर आती है
वही बड़े बड़े मॉल्स चिकनी सपाट सड़कें फ्लाईओवर फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर मैट्रो रेल क्नौट प्लेस इंडिया गेट संसद भवन राष्ट्रपति भवन न जाने क्या क्या हमारे सामने मण्डराने लगता है।
लेकिन हम में से कितने लोग हैं जो दिल्ली के गावों को भी जानते हैं
दिल्ली में गांव कैसे हो सकते कुछ लोग तो यह भी सोचते होंगे
जी हां जिस जमीन पर आज दिल्ली खड़ी है वह कभी गांव की ही जमीन हुआ करती थी लेकिन इस ग्लोब्लाइजेशन के दौर में गांव की जगह कंक्रीट के जंगलों ने ले ली है।
लेकिन गांव आज भी हैं जिन्होंने दिल्ली बसाई आज वो अपनी बदहाली पर खून के आंसू बहा रहे हैं।

महंगे महंगे वाहनों के बोझ तले दबे इस शहर में शुद्ध औक्सीजन तो दिन में लालटेन लेकर भी निकलो तो न मिलेगी। तो सोचा दिल्ली के किसी गांव की सैर करके आते हैं और निकल पड़े दिल्ली के गांव देवली की तरफ।
लेकिन तस्वीर बद से बद्तर निकली। गांव में लोग इस तरह से रह रहे हैं जैसे एक बंद कोठरी में भूसा भर दिया गया हो। देश का जनसंख्या घनत्व कुछ भी हो लेकिन यहां के आंकड़े उस घनत्व से कोई इत्तफाक़ नहीं रखते।
गांव में घुसते ही पीपल का पेड़ दिखा जो २४ घण्टे औक्सीजन मुफ्त में प्रोवाइड कराता है। तो सोचा क्यों न यहीं औक्सीजन की दो सांसें ले लीं जाए। मोटर साइकल को सड़क किनारे लगाते हुए पीपल के नीचे पहुंचा।
वहीं एक पान की दुकान देखी जिससे गांव के हाल चाल लेने की सूझी और सिग्रेट लेने के के बहाने ही उससे बात करने लगा। जैसे जैसे मैंने उससे बात की उसने बताया कि उसका नाम रामफल है और पिछले १७ सालों से परिवार के साथ दिल्ली में ही किराए की अवैध कॉलोनी में रहता है। बीते उन सालों में हर चुनाव में उसने वोट का कर्ज अदा किया लेकिन नहीं पता किसे किया। उसे यह भी नहीं पता कि उसके इलाके का निगम पार्षद और विधायक कौन है। ज्यूं ज्यूं में उससे बात करता लोगों का हुजूम जुड़ने लगा और सभी लोग अपने अपने तरीके से गांव की तस्वीर बयां करने लगे।

कहते हैं बीते दो दशको में सब कुछ बदल गया दिल्ली की इमारतें आसमान छूने लगीं खुली सपाट सड़कें बन गईं फ्लाईओवर दर फ्लाईओवर बन गये दिल्ली मैट्रो भी आ गई और भी कई बड़ी उपलब्धियां दिल्ली के साथ जुड़ गईं।
साथ ही साथ गांव भी बदला लेकिन शहर नहीं बना तो शहर से कम भी नहीं रहा लेकिन लोग उसे देवली गांव के नाम से ही जानते और पुकारते हैं। वहां खड़े लोगों ने मुझे गांव के अंदर तक जाने से मना किया कहा कि भइया सड़क यहीं खत्म हो जाती है इसके आगे तो बड़े बड़े खड्डे हैं। आपको चोट लग सकती है मोटर साइकल को भी नुकसान हो सकता है। कहते हैं अभी सर्दी के दिनों में तो खड्डे नजर आ भी जाते हैं लेकिन बारिश के दिनों में सड़क नाले में तब्दील हो जाती है। गांव के भीतर से जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं है पानी पूरे चौमासे यहीं सड़कों पर ही भरा रहता है। जिस पर सिवाय बीमारियों के कुछ और नहीं तैरता। संगम बिहार का भी सारा गंदा पानी देवली गांव की ही तरफ आता है। गांव के लोग तो अब गांव छोड़ शहर चले गये यहां तो बस प्रवासी कामगर मजदूर ही रहते हैं। यहां रहने वाले ज्यादातर लोग मजदूर रेडड़ी लगाने वाले जैसे लोग ही रहते हैं।


यहां के पूर्व निगम पार्षद और वर्तमान दिल्ली प्रदेश के भाजपा कोषाध्य ‌‌‌‍‍नाम कहते हैं कि स्तिथि बदतर से भी गई गुजरी हो चली है। गांव का आदमी बेवसी और नर्क की ज़िंदगी बसर करने को मजबूर है। लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।
यहां चोर उचक्कों का राज है गरीब मजदूर मजबूर है। कभी ऐसा भी होता है कि घर आया मेहमान आपसे पानी मांगे और बार बार आप उसके हाथ में कोल्ड ड्रिंक थमा दें। चाय पीने और पिलाने की बात करने लगें। जिल्लत की ज़िंदगी का एहसास तो तब होता है जब मेहमान को हम बिना पानी पिलाए ही घर से रवाना कर देते हैं। रहीम का दोहा
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे मोती मानस चून।।

का एहसास किसी हो चाहे न हो लेकिन देवली गांव के निवासियों को जरूर है।
साथ ही साथ कहते हैं कि जब प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी तो कॉंग्रेस का विधायक था जब कॉंग्रेस की सरकार थी तो बीजेपी का विधायक था जिस वजह से कभी तालमेल बैठ नहीं पाया।
लेकिन अब जबकि सरकार और बिधायक दोंनों ही कॉंग्रेस के हैं तो सरकार कोई सकारात्मक पहल क्यों नहीं करती। गांव में सड़क नहीं है बिजली नहीं है पीने का शुद्ध पानी नहीं है लोग पानी खरीदकर ही जीवन यापन करते हैं अशुद्ध जल निकासी के लिए नाला नहीं है किसी भी इमरजैंसी की स्तिथि में गांव से निकलने का कोई दूसरा रास्ता तक नहीं है ऐसी कई गम्भीर समस्याओं का ज़िक्र किया।



दिल्ली में एसे ही सेकड़ों गाव हैं जिनकी खैर खबर लेने वाला कोई नहीं। दिल्ली में कुछ भी हो तो टीवी पर सबसे पहले दौड़ने लगता है।
कहीं सड़क धसती है तो सब टीवी चैनल टीआरपी मैराथन में लग जाते हैं लेकिन जहां सड़क ही नहीं वहां की खबर कौन ले शायद ओबी वैन वहां तक न पहुंचती होगी।
एक दिन पानी नहीं आता या कटौती कर दी जाती है टीवी पर दिल्ली के पानी की कमी आ जाती है लेकिन जहां पानी कभी नहीं आता वहां की सुध कोई क्यूं ले पानी खरीद कर खा पी नहा धो तो लेते ही हैं वे लोग।
ऐसा लगता है जैसे आसमान छूती इन इमारतो के बोझ से गांव कहीं दब गया है। जैसे उसकी परछईं में कहीं छुप गया है।
अगर यही हालात रहे तो आज हम सेव टाइगर आंदोलन चला रहे हैं तो कल सेव विलेज आंदोलन चलाएंगे।
वरना गिद्दों की तरह ही कहेंगे कि दिल्ली में गांव थे।