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Monday, May 30, 2011

लखनऊ से दिल्ली

जून की भीषण गर्मी पड़ रही है, मौसम गर्म है, लू चल रही है, कोई घर से निकलना

ही नहीं चाहता। लेकिन इस गर्मी का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर बिल्कुल भी नहीं

है। विधान सभा चुनाव होने में अभी पूरा एक वर्ष बाकी है लेकिन चुनावी बिसात बिछ चुकी

है। सभी दल तैयारियौं में जुट गए हैं मानो चुनाव होने वाले हों। उत्तर प्रदेश की 403 विधान

सभा सीटों वाली विधान सभा के लिए सभी ने अपने प्रत्याशियों की सूची तैयारी करनी शुरू

कर दी है। सभी को लखनऊ की कुर्सी चाहिए, दिल्ली का रास्ता जो लखनऊ से होकर जाता

है। निशाना सिर्फ 2012 उप्र चुनाव नहीं है चूंकि उत्तर प्रदेश भारतीय संसदीय राजनीति

का सबसे बड़ा केंद्र है। यहां से लोकसभा की 543 में से 80 सीटों का चयन होता जो किसी भी

अन्य प्रदेश से ज्यादा हैं। चुनाव 2012 के परिणाम आम चुनाव 2014 की दिशा तय करेंगे कि

उत्तर प्रदेश का समर्थन किसे मिलने वाला है। इसलीए कोई भी दल कोई मौका छोड़ना नहीं

चाहता वोटरों को लुभाने के लिए। उत्तर प्रदेश की राजनीति ही ऐसी है कि हवा किस ओर

चलेगी और जनता किसे चुनेगी कुछ नहीं कह सकते।

लेकिन उत्तर प्रदेश का रिकॉर्ड रहा है, पिछले दो दशकों में सत्तारुढ़ दल कभी सत्ता

में वापस नहीं आया। और न ही किसी मुख्यमंत्री ने अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा किया

है। उत्तर प्रदेश की राजनीति का तकाजा ही यही है। यहां की राजनीति विकास, सुशासन,

भ्रष्टाचार मुक्त शासन, और कानून के भरोसे न चलकर धर्म सम्प्रदाय और जाति के

आधार पर चलती है। यही वजह है कि आजादी के बाद पिछले दो दशकों में कांग्रेस उत्तर

प्रदेश की सत्ता पर कभी काबिज नहीं हो पाई। लेकिन बनारस में हुए उत्तर प्रदेश कांग्रेस

कमैटी के 83वे अधिवेशन को देखकर लगता है कि कांग्रेस अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन

वापस पाना चाहती है। पिछले 22 वर्षों मे उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रदेश में हाशिए पर पहुंच

गई है। और अब कांग्रेसी इसमें दोबारा जान फूंकने में जुट गए हैं। अधिवेशन को देखकर तो

ऐसा ही लगता है। सोनिया गांधी ने पहली बार सीधे तौर पर मायावती को निशाना बनाया।

ऐसा पहली बार हुआ था कि सोनिया ने सीध मायावती पर टिप्पड़ी की हो। उन्होने कहा जो

उत्तर प्रदेश अपने गौरवमयी इतिहास, कला, कवि, शायरों के लिए जाना जाता था वह अब

अपराधियों की शरण गाह बन गया है। उत्तर प्रदेश अब क्राइम प्रदेश के नाम से जाना

जाता है। वहीं राहुल गांधी ने अपने आप को किसानों और मजदूरों का नेता बताया और कदम

कदम पर उनका साथ देने का वायदा किया।

उन्होंने प्रदेस की कानून व्यवस्था, विकास के सवाल पर जनता का सहयोग मांगा और कहा

कि मैं अब गांव गांव जाऊंगा और लोगों की आवाज बनूंगा।

निश्चित रूप से कांग्रेस इन सवालों को लेकर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक अखाड़े में पूरे

जोश ओ खरोश के साथ उतरना चाहती है। और इन्हीं सवालों के जरिए अपनी आक्रामक और

जन सरोकारी छवि बनाकर अपने कार्यकर्ताओं मे नई जान फूंकनाचाहती है। जिससे पिछले

22 सालों से हाशिए पर पड़ी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की राजनीति की मुख्य धारा में ला

सके।

जिस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था वहीं दूसरी ओर दिल्ली के नजदीक नोएडा

का भट्टा परसोल गां जमीन अधिग्रहण की आग में सुलग रहा था। और उत्तर प्रदेश शासन

और प्रशासन का दमनात्मक रवैया सुर्खियों में था। जिसे कांग्रेस ने पूरी तरह कैश किया

और राहुल ने इस पुलिसिया अत्याचार को कम करने की सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया।

यही मुद्दा उठाकर राहुल ने अधिवेशन के जरिए प्रदेश के किसानों तक पहुंचने की कोशिश

की। और गांव गांव जाने का एलान किया।

आम चुनाव 2009 में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद कांग्रेस अब लखनऊ की कुर्सी

पाने की बाट जोह रही है। वर्तमान में कांग्रेस के पास उप्र की 80 लोकसभा सीटों में से 21

सीटें हैं जोकि 2004 में सिर्फ 4 थीं।वहीं अगर विधान सभा सीटों की बात करे तो वर्तमान में

कांग्रेस के पास सिर्फ 19 विधायक हैं। अब जहां एक साल का समय रह गया है तो कांग्रेस

ने कवायद शुरू कर दी है। मुलायम सिंह के गढ़ मैनपुरी में भारी भीड़ के साथ जनसभा करके

कांग्रेस ने चेतावनी दे दी है। फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर राज बब्बर की जीत के बाद

कांग्रेस का मन बढ़ गया है वह अब मुलायम के गढ़ में ही सेंध लगाने की कोशिश में है।

राजबब्बर ने फिरोजाबाद से मुलायम की पुत्रवधु को 70000 से भी अधिक मतोमं से हराया

था। जो वाकई में कांग्रेस के लिए बड़ी जीत और सपा के लिए शर्मनाक हार थी।

अभी हाल ही में देश के 5 राज्यों में चुनाव सम्पन्न हुए। जिसमें क्षेत्रीय दलों की

राजनीति ने बड़े दलों कोसत्ता के शिखर तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन

उत्तर प्रदेश में किन्ही दलों के बीच गठबंधन की राह नजर आ नहीं रही है। लोकसभा चुनावों

की तरह इन चुनावों में भी वह अकेले दम पर लड़ेगी। और उत्तर प्रदेश में सीधा मुकाबला

सपा और बसपा के बीच में है। भाजपा और कांग्रेस तीसरे और चौथे पायदान पर हैं। एक

अनुमान के अनुसार राज्य में 20 फीसदी आबादी अगड़ों की है, जिसमें से करीब 10 फीसदी

ब्राह्मण और 8 फीसदी राजपूत हैं। भाजपा का मुख्य आधार अगड़ी आबादी से है। दलितों की

आबादी करीब 23 फीसदी है, जिसके बड़े हिस्से पर बसपा का कब्जा है। आज जिस सोशियल

इंजीनियरिंग के बूते बसपा सत्ता में है उसी गठजोड़ केआधार पर कांग्रेस ने सालों साल

राज किया है। 90 के दशक मे भाजपा के सत्ता में आने का बड़ा कारण सवर्णों के साथ साथ

पिछणों के वोट बैंक पर गहरी पकड़ थी। वहीं सपा के सत्ता में आने का प्रमुख कारण यादव

मुस्लिम गठजोड़ था।

कांग्रेस की कोशिश अगड़ों में सेंध लगाने के साथ साथ मुस्लिमों और दलितों को जोड़ने

की है। राहुल की पूरी कोशिश किसानों और दलितों के हीरो बनने कीहै। दलितों के घर जाना,

उनके घर खाना खाना, रात बिताना, किसानों के बीच जाना उनकी रणनीति का हिस्सा है।

जो मुसलमान अयोध्या कांड के बाद बिखर गया था कांग्रेस उसे अपने साथ जोड़ने में जुटी

हुई है। मुस्लिम मतदाताओं की संख्या18 फीसदी है जो प्रदेश की 125 विधान सभा सीटों पर

निर्णायक भूमिका निभाता है।

उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के राजनीतिक पैंतरों के बावजूद भी कांग्स नेत्रत्व चरमराया

हुआ है। राहुल कितना भी कर लें लेकिन कांग्रेस का नम्बर भले से भाजपा से पहले आ जाए

माया-मुलायम के बाद ही आना है। इसकी वजह सिर्फ कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में ढीली जड़ें

होना नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए कोई चेहरा कांग्रेस के

पास नहीं है। राहुल गांधी स्वयं मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं और उनके अलावा ऐसा कोई नेता है

नहीं जिसका उत्तर प्रदेश के वोटरों पर करिश्माई प्रभाव हो, जिसकी कनेक्टिविटी आम

वोटरों से सीधे तौर पर हो।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी पूरे 28 साल बाद अपनी आम सभा का अधिवेशन इतने

जोश ओ खरोश के साथ कर रही है। इससे पहले सन् 1982 में कानपुर के नानाराव पार्क में

कांग्रेस का उत्तर प्रदेश अधिवेशन हुआ था। तब इंदिरा गांधी केंद्र की सत्ता में थीं। उसके

बाद अब से 2 वर्ष पहले एक अधिवेशन कानपुर के इसी मैदान में हुआ था लेकिन तब उस

अधिवेशन में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने इस स्तर पर भाग नहीं लिया था। जरूर ही ये 2009

आम चुनाव में मिली सफलता का प्रमाण था जो इतने बड़े नेता कांग्रेस के मंच पर एक साथ

मौजूद थे।

अब देखना दिलचस्प होगा कि अगले साल हो रहे विधान सभा चुनावों में जनता किस ओर

झुकती है। ऐसे में जब कांग्रेस घोटालों के दंश से घिरी हुई है, माया के मुर्ति प्रेम से जनता

त्रस्त आ चुकी है, मुलायम पर परिवार प्रेम भारी है, और भाजपा के पास कोई नेतृत्व नहीं है

जिसके बूते वह प्रदेश में चुनाव लड़ सके।

Wednesday, May 4, 2011

ये कैसी डिप्लोमेसी

पिछले दिनों खबर आई कि दुनिया का सबसे ताकतवर शख्स अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देशवासियों से गुहार लगा रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी बीमारों से अपील की कि सस्ता इलाज कराने के लिए भारत या फिलीपिंस न जाएं। और अपने ही देश में इलाज कराएं। उनकी इस बात का सीधा मतलब अमेरिकी डॉलर से था जो इलाज के बहाने देश से बाहर न जाकर अमेरिका में ही रहे। उनकी ये अपील जायज भी हैं क्यों देश का पैसा भला बाहर भेजा जाए।

पिछले साल यूनाइटेड नेशन्स के सभी देशों के राष्ट्रप्रमुख भारत दौरे पर आए। और सभी ने भारत से अरबों के सौदे किए। उनमें से एक अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भी थे। वे नवम्बर में अपनी पत्नी मिशेल ओबामा के साथ भारत आए। ऐसा अमूमन देखा ही जाता है कि कोई भी राष्ट्रपति अपनी पत्नी के साथ ही विदेश यात्रा पर जाता है। लेकिन यहां कुछ अलग था ओबामा अपने साथ एक या दो नहीं बल्कि पूरे दो सौ अमेरिकी कारोबारी साथ लाए। ऐसे में वे सबसे ताकतवर राष्ट्र के राष्ट्रपति कम एक व्यापारी ज्यादा लग रहे थे।

यात्रा के पहले दिन ही उन्होंने अमेरिकी और भारतीय कम्पनियों के बीच दस अरब डॉलर के बीस समझौते किए। दस अरब डॉलर मतलब पांच हजार करोड़ रुपये। इतनी बड़ी रकम सुनकर लगता है जरूर भारत के पाले में बहुत सारे फायदे आए होंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इसका ‍सीधा फायदा सिर्फ और सिर्फ अमेरिका को हुआ और इस सौदे के साथ अमेरिका में ५४००० नई नौकरियों का जन्म हुआ।
बात ये है कि जिस देश के बीमारों को ओबामा भारत जाने से रोक रहे हैं उसी देश की मौजूदा तरक्की में भारत और भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व के सबसे ताकतवर देश की जड़ें कहां खड़ीं हैं। एक नजर इन आंकड़ों पर भी डाल लेते हैं
अमेरिकी बीमारों के इलाज के लिए ३८ फीसदी डॉक्टर भारतीय हैं।
१२ फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं।
नासा के अंदर ३६ फीसदी वैज्ञानिक भारतीय हैं।
सोफ्टवेयर कम्पनी माइक्रोसोफ्ट के अंदर ३४ फीसदी भारतीय हैं।
ऊंची डिग्री प्राप्त करने वालों में ४० फीसदी भारतीय ही हैं।
होटल रेस्तरां व्यवसाय में भी ३५ फीसदी भारतीय हैं।
जबकि ५० फीसदी बड़े होटल भारतीयों के ही हैं।
इन सब आंकड़ों को देखने के बाद आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि अमेरिका की तरक्की में भारतीयों का कितना महत्वपूर्ण योगदान है। उसके बावजूद भी भारत और अमेरिका के रिश्ते उतने मधुर नहीं रहे जितने कि हो सकते थे। एशियाई देशों पर अपनी हुकूमत चलाने के लिए वह हमेशा आतंकवाद से त्रस्त पाकिस्तान को भारत के खिलाफ हमेशा समर्थन करता रहा। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान के अरबों डॉलर की मदद की गई यह जानते हुए भी कि यह रकम भारत के खिलाफ इस्तैमाल की जा रही है। और दूसरी तरफ वह भारत को हमेशा डिप्लोमेसी का पाठ पढ़ाता रहा है।
चाहे वह कश्मीर मसला हो या मुम्बई हमला अमेरिका का हमेशा दोगुला रूप देखने को मिला। अपनी भारत यात्रा के दौरान ओबामा सबसे पहले मुम्बई के उसी ताज होटल पहुंचे जहां पाकिस्तानी आतंकवादियों ने नरसंहार किया था। गेट वे औफ इंडिया से अपनी स्पीच के दौरान उन्होंने अपनी और भारत की आतंक के खिलाफ एकजुटता का व्याख्यान तो किया लेकिन आतंक के पनाहगार पाक के बारे में कुछ नहीं कहा। चरमपंथ के मुद्दे पर पाकिस्तान के रुख और अमेरिका के साथ पाकिस्तान के सम्बंधों को लेकर भारत हमेशा आशंकित रहा है।
पाकिस्तान में स्थिरता लाने के नाम पर अमरीका ख़ुद ही वहाँ के सैनिक शासकों को मदद मुहैया कराता रहा है। ये वही लोग हैं जो भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देते रहे हैं. वैसे भी अमरीका को अफ़गानिस्तान जैसे मामलों में पाकिस्तान के मदद की दरकार है।
आतंकवाद कश्मीर पाकिस्तान भोपाल त्रास्दी के दोषी वारेन एंडरसन मुम्बई हमले के दोषी रिचर्ड हेडली कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको लेकर भारत अमेरिका की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता है।
जहां मैक्सिको की खाड़ी में हुए तेल रिसाव को लेकर अमेरिका ने अरबों डॉलर का मुआवजा लिया वहीं भोपाल त्रास्दी के पीड़ितो को २६ साल बाद भी न्याय मिल नहीं पाया है।
9/11 के दोषी ओसामा को मौत के घाट चढ़ाकर अमेरिका ने बदला ले लिया है लेकिन 26/11 के दोषी हाफिजं सईद और अन्य अब भी पाकिस्तान में खुले सांड की तरह घूम रहे हैं और भारत के खिलाफ जहर उगल रहे हैं।
कश्मीर मुद्दे पर सीधे कार्यवाही करने के वजाय वह हमेशा तटस्थ भूमिका निभाने की वकालत करता रहा है।

जिस देश को विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति एंव सबसे शक्तिशाली देश बनाने में भारत और भारतीयों का इतना बड़ा योगदान हो। उस देश का भारत के प्रति ऐसा रुख कुछ हजम नही होता। भारत को किसी से उम्मीद न करके अपनी समस्यायें खुद ही सुलझानी होंगीं। अगर अमेरिका के भरोसे रहे तो वह हमेशा डिप्लोमसी का पाठ पढ़ाता रहेगा।